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उप॒ यो नमो॒ नम॑सि स्तभा॒यन्निय॑र्ति॒ वाचं॑ ज॒नय॒न्यज॑ध्यै। ऋ॒ञ्ज॒सा॒नः पु॑रु॒वार॑ उ॒क्थैरेन्द्रं॑ कृण्वीत॒ सद॑नेषु॒ होता॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upa yo namo namasi stabhāyann iyarti vācaṁ janayan yajadhyai | ṛñjasānaḥ puruvāra ukthair endraṁ kṛṇvīta sadaneṣu hotā ||

पद पाठ

उप॑। यः। नमः॑। नम॑सि। स्त॒भा॒यन्। इय॑र्ति। वाच॑म्। ज॒नय॑न्। यज॑ध्यै। ऋ॒ञ्ज॒सा॒नः। पु॒रु॒ऽवारः॑। उ॒क्थैः। आ। इन्द्र॑म्। कृ॒ण्वी॒त॒। सद॑नेषु। होता॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:21» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (यजध्यै) मेल करने को (वाचम्) उत्तम शिक्षायुक्त वाणी (जनयन्) प्रकट करता हुआ (उक्थैः) प्रशंसित कर्म्मों से (ऋञ्जसानः) अत्यन्त सिद्ध करता हुआ (पुरुवारः) बहुतों से स्वीकार किया गया (होता) न्याय को देनेवाला (सदनेषु) न्याय के स्थानों में (नमसि) अन्न वा सत्कार के निमित्त (नमः) अन्न को (उप, स्तभायन्) स्तम्भित अर्थात् रोकता हुआ (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्य को (आ, कृण्वीत) सिद्ध करे, वह अन्न और सत्कार को (इयर्त्ति) प्राप्त होता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो राजा विद्या और उत्तम शिक्षा से युक्त नीति को प्रकट करता, सत्कार करने के योग्यों का सत्कार करता, दुष्टों को दण्ड देता और प्रयत्न करता हुआ राज्य के पालन से ऐश्वर्य्य की उन्नति करता है, वही सर्वत्र सत्कृत होता है ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव राजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो यजध्यै वाचं जनयन्नुक्थैर्ऋञ्जसानः पुरुवारो होता सदनेषु नमसि नम उप स्तभायन्निन्द्रमा कृण्वीत स नमः सत्कारमियर्त्ति ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उप) (यः) (नमः) अन्नम् (नमसि) अन्ने सत्कारे वा (स्तभायन्) स्तम्भयन् (इयर्त्ति) प्राप्नोति (वाचम्) सुशिक्षितां वाणीम् (जनयन्) प्रकटयन् (यजध्यै) यष्टुं सङ्गन्तुम् (ऋञ्जसानः) प्रसाध्नुवन् (पुरुवारः) बहुभिः स्वीकृतः (उक्थैः) प्रशंसितैः कर्म्मभिः (आ) (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यम् (कृण्वीत) कुर्य्यात् (सदनेषु) न्यायस्थानेषु (होता) न्यायस्य दाता ॥५॥
भावार्थभाषाः - यो राजा विद्यासुशिक्षायुक्तां नीतिं प्रकटयन् सत्काराऽर्हान् सत्कुर्वन् दुष्टान् दण्डयन् प्रयतमानः राज्यपालनेनैश्वर्योन्नतिं करोति स एव सर्वत्र सत्कृतो जायते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा विद्या व उत्तम शिक्षणाने युक्त नीतीचा अवलंब करतो. सत्कार करण्यायोग्याचा सत्कार करतो, दुष्टांना दंड देतो व प्रयत्न करत राज्याचे पालन करून ऐश्वर्याची वाढ करतो तोच सर्वत्र सत्कार करण्यायोग्य असतो. ॥ ५ ॥